पत्रकारिता को कलंकित होने से बचाओ

किसी समय एक पवित्र पेशे और पत्रकारिता धर्म के कारण पत्रकारों को समाज के हर वर्ग में बड़े मान-सम्मान के साथ देखा जाता था। देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने से लेकर सन् 1947 में मिली आजादी के बाद एक नये भारत के निर्माण में पत्रकारों की महती भूमिका रही है। हिंदुस्तान का इतिहास प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आज के विकासशील भारत तक का बिना पत्रकारों के लिखा ही नहीं जा सकता। अपना घर फूँक कर देश को आजाद करने का मिशन लेकर कंटकांकीर्ण पथ पर चलते हुए अनेक पत्रकारों ने अँग्रेजों की यातनाएँ सही और अनेक बार जेल की यात्राएँ की। तब का वह पत्रकार और पत्रकारिता आज जैसी ग्लैमरस नहीं थी। कुर्ता-पजामा और चप्पल के अलावा उसके काँधे पर लटक रहा झोला ही उसकी पहचान थी जिसमें वह एक डायरी और पेन रखता था। शायद पत्रकारिता धर्म का पालन करते हुए अपने परिवार के लिये दो जून की रोटी का प्रबंध करना भी उसके लिये दुष्कर होता होगा।

देश आजाद हुआ, आजादी के बाद 20-25 वर्षों तक तो पत्रकारिता का पेशा भी इतना दूषित नहीं हुआ था परंतु उसके बाद सन् 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद महंगाई बेतहाशा बढ़ी, पत्रकारिता के पेशे में लिखने-पढऩे वाले बौद्धिक लोगों की जगह उद्योगपतियों, पँूजीपतियों ने समाचार पत्रों के समूहों पर कब्जा करना प्रारंभ किया और कुछ वर्षों बाद पूरे देश में समाचार पत्र और इसके बाद इलेक्ट्रानिक मीडिया पर देश के औद्योगिक घरानों का कब्जा हो गया। पत्रकार मानसिक रूप से बंधक बना लिये गये पत्रकारों की पैनी कलम गुलाम होकर वहीं लिखने लगी जो मीडिया संस्थान का मालिक ‘आकाÓ कहता था। पत्रकारिता जैसे पवित्र पेशे और धर्म का पथभ्रष्ट होना प्रारंभ हुआ। समाज के हर तबके की तरह पत्रकारिता भी कलंकित होना शुरू हुई। इस बात को समाज ने भी स्वीकार कर लिया कि जब देश की सारी प्रणाली चाहे वह राजनीतिज्ञ हो, अफसरशाह, कर्मचारी या समाजसेवी भ्रष्ट हो सकते हैं तो फिर पत्रकारिता का पेशा कैसे अछूता रह सकता है। एक सीमा तक तो पत्रकारिता का अवमूल्यन स्वीकार किया जा सकता था परंतु बीते 5-6 वर्षों से तो पत्रकारों की एक नयी फौज खड़ी हो गयी है। देश के सभी प्रदेशों की राजधानियों में बकायदा गोली-बिस्कुट चॉकलेट की दुकानों की तरह पत्रकारिता का पेशा बेचने की दुकानें खुल गयी है। मात्र 1000-1500 रुपये में वह किसी भी न्यूज चैनल के नाम की आईडी, गले में टाँगने का पट्टा और परिचय पत्र और माइक भी दे देते हैं। पत्रकार का परिचय पत्र प्राप्त होते ही इस पवित्र पेशे का क ख ग भी नहीं जानने वाला नौजवान अपने आप को अति-विशिष्ट मानने लग जाता है और वह अपने आप जमीन से कुछ फुट ऊपर समझता है।

कमर में चैनल का माइक खोसकर किसी भी राजनेता, अधिकारी, कर्मचारी को चमकाना, कैमरे का डर दिखाकर भयभीत करना और शाम तक 400-500 की कमाई का लक्ष्य ही उसका मुख्य उद्देश्य रहता है। जिन चैनलों का माइक लेकर वह घूमते हैं उनमें से 99 प्रतिशत तो ब्रह्मांड में ही नहीं दिखते हैं। हाँ, इतना जरूर है कि जिस व्यक्ति का बयान या कार्यक्रम रिकार्ड करते हैं उसके व्यक्तिगत नंबर पर वह उसे उपलब्ध करा देते हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि शासकीय अधिकारी-कर्मचारी और नेता अनभिज्ञता के कारण ऐसे तथाकथित पत्रकारों को जरूरत से ज्यादा तवज्जों दे रहे हैं जिसके कारण उनके हौंसले जरूरत से ज्यादा बुलंद हो रहे हैं। पत्रकारों की इस नयी पौध के कारण जो वास्तव में प्रतिष्ठित चैनलों के संवाददाता है वह कहीं गुम होते जा रहे हैं जो चिंता का विषय है।

देश-प्रदेश की तरह मेरे शहर का भी यही हाल है। पुलिस सूत्रों के अनुसार हाल ही में घटी दो-तीन घटनाओं में पत्रकारों को संलिप्तता नजर आयी है। बीते दिनों शहर के एक सर्राफा व्यापारी द्वारा महिला के खिलाफ ब्लैकमेलिंग का आरोप लगाया गया था जाँच में यह पता चला है कि महिला के साथ कुछ पत्रकारों ने ही मिलकर यह षड्यंत्र रचा था। दूसरी घटना चोरी की वारदात करने से पूर्व गिरफ्त में आये चोरों की गैंग को पत्रकार द्वारा ही छुड़वाया गया। एक अन्य ताजा घटना पोहा फेक्ट्री के संचालक पर कर्मचारी महिला द्वारा लगाये गये आरोप को लेकर है पुलिस जाँच में यह बात सामने आ रही है कि कुछ पत्रकारों ने ही 5 लाख के लिये महिला के साथ मिलकर इस घटना को अंजाम दिया और पोहा फेक्ट्री संचालक के विरुद्ध पुलिस पर दबाव बनाकर प्राथमिकी दर्ज करवा दी। यदि पत्रकारिता जगत में इस तरह की मानसिकता पोषित होगी तो यह आने वाले समय के लिये बहुत चिंताजनक है। यदि पत्रकार ही अपराधों में शामिल होंगे तो समाज की नजरों से पूरी तरह गिर जायेंगे। अच्छे शिक्षित नवयुवकों का पत्रकारिता व्यवसाय में ना आना और काली भेड़ों का इसमें घुस जाना बेहद अफसोसजनक है। जनप्रतिनिधियों और शासकीय अधिकारी-कर्मचारियों को भी चाहिये कि वह स्वविवेक से पत्रकारिता की खाल ओढ़कर घूम रहे तथाकथित पत्रकारों का मान-मर्दन करें और उन्हें हतोत्साहित करें।

पत्रकार संगठनों को भी चाहिये कि वह वोट के चक्कर में क्वान्टिटी की जगह क्वालिटी का ध्यान रखें। हर किसी को पत्रकार का परिचय पत्र जारी करोगे तो स्वयं मिट जाओगे। वैसे भी अच्छे पत्रकारों को स्वयं को पत्रकार के रूप में परिचय देना अब इतना आत्मसम्मान भरा नहीं लगता।
अर्जुनसिंह चंदेल

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