कुर्सी के स्वयंवर का नहीं टूटा धनुष, कांग्रेस की बंजरभूमि में हरियाली की कवायद

नागदा, अग्निपथ। बड़े-बड़े राष्ट्रीय-प्रादेशिक नेताओं से ताल्लुकात रखने वाले उज्जैन जिले के औद्योगिक नगर नागदा में अबकि बार शहर सरकार चुनाव का सियासती कांटा दंगल बड़ा रोचक हो गया। प्रचार अब सियासत की बिछात पर अंतिम चरण में है। मुख्य मुकाबला भाजपा एवं कांग्रेस के बीच हैं। कई बरसों से शहर सरकार में सत्ता के सुख से वंचित कांग्रेस अबकि बार टक्कर में हैं। भाजपा ने अपनी पुरानी सता की विरासत को बचाने के लिए ताकत को झोंक दिया है। उधर, कांग्रेस अब शहर सरकार में अपनी बरसों पूरानी बंजरभूमि में हरियाली लाने के लिए जी जान से जुटी है। हालात यह हैकि दोनों दलों के संग्राम में एक-दूसरे को पटकनी देने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। बस जुगाली करते उंट की करवट का इंतजार है।

अतीत के इतिहास का आंकलन किया जाय तो कांग्रेस ने शहर सरकार की कुर्सी पर कब राज किया क्षितिज में कुछ धुंधला सा नजारा वर्ष 1994 का दिख रहा है। इस वर्ष वरिष्ठ नेता बालेश्वर दयाल ने अपनी पैनल लड़ाकर पार्षद प्रणाली से अध्यक्ष कुर्सी पर कब्जा किया था। उसके बाद कांग्रेस को चुनाव के बैनरतले यह कुर्सी नसीब नहीं हुई। वर्ष 1999 में पहली बार मप्र में अध्यक्ष की सीधी प्रणाली से चुनाव का श्री गणेश हुआ। उसके बाद शहर सरकार की यह कुर्सी रूठी रही और कांग्रेस से कभी मोहब्बत नहीं की। एक बार ऐसा अवसर आया था कि बालेश्वर दयाल कुर्सी से शासन के निर्णय से पदच्युत हुए तब कांग्रेस सरकार में स्व. भेरूसिंह तंवर को शासन के एक आदेश के तहत 2 नवंबर 1999 से 2 जनवरी 2000 तक बतौर अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। इस ताजपोशी का श्रेय प्रजातंत्र प्रणाली से कांग्रेस को इसलिए नहीं हैकि वे शासन के आदेश पर अध्यक्ष बने थे।

पंतग की डोर अकेले ने थामी

किसी जमाने में इस सूबे के एक मात्र बालेश्वर दयाल कांग्रेस के ऐसे राजनेता थे जिनकी शोहरत का जलवा जिला एव प्रदेश की कांग्रेस सियासत में परवान पर था। जिन्होंने नपा में तकरीबन कुल 20 वर्षो तक हुक्म चलाया। नपा नागदा का अस्त्तिव 1968 में आया। उसके बाद इस कुर्सी का रिमोट अधिकांश बार प्रशासन के पास रहा। वर्ष 1982 में आप पहली बार पार्षद प्रणाली से कुर्सी के मुखिया बने। उसके बाद भी श्री जायसवाल इस कुर्सी को मालिक रहे। हालांकि बाद में वे एक बार प्रजातांत्रिक प्रणाली के अध्यक्ष चुनाव में निर्दलीय चुनाव जीते,जिसका श्रेय कांग्रेस को नहीं दिया जा सकता। वर्ष 1993 में इस विधानसभा क्षेत्र से दिलीप सिंह गुर्जर के विधायक बनने के बाद जायसवाल की राजनीति प्रभावित हुई। विधायक की ताजपोजी के बाद श्री गुर्जर कांग्रेस के सिरमौर बने और हर निर्णय पर अपना रूतबा चला। इनकी सियासती तकदीर ने इतना साथ दिया कि इस क्षेत्र में श्री गुर्जर कांग्रेस की पतंग को आकाश में आज तक स्वयं उड़ाते रहें। इस पंतग से विधानसभा चुनाव में तो भाजपा से पेंच लड़ाने में तो सफल होते रहें, भाजपा की पतंग कटती रही, लेकिन नपा के चुनाव में कांग्रेस की पंतग हर बार आकाश में डगमगा गई और भाजपा के तीखे धागे के आगे गगन से ओझल होती गई।

श्री गुर्जर अपनी रणनीति से विधानसभा में अपनी सियासत को मजबूती के साथ भाजपा को पटकने देने में कामयाब हुए, लेकिन नगरपालिका, कृषि उपजमंड़ी, जनपद सदस्य एवं जिला पंचायत सदस्यों के मामले में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाए। जिसका परिणाम यह सामने आया कि इस सूबे में कांग्रेस में दूसरी पक्ति की फौज तैयारी नहीं हुई। इतनी उपलब्धियों के बावजूद श्री गुर्जर नागदा- खाचरौद में नपा की कुर्सी के स्वयंबर में धनुष नहीं तोड़ पाए।

कई वर्षो से भाजपा ने नागदा एवं खाचरौद दोनों शहरों की नगरपालिका पर अपना कब्जा जमाया। ऐसी स्थिति में भाजपा को बैठने के लिए काफी लंबी-चौड़ी जाजम मिल गई। जिस पर बैठकर पंडित दीनदयाल के अनुयायी अपनी पकड़ मजबूत करते गए। अब सवाल यह कचौटता हैकि विधानसभा में तो किला फतह होता लेकिन अन्य चुनावों में कांग्रेस की कश्ती मझधार में ही डूब जाती। यह करिश्मा श्री गुर्जर की रणनीति का हिस्सा है या परिस्थति जन्य है। जनमानस से बार-बार आवाज आती है कि यह एकाधिकार की राजनीति को बरकरार रखने की शतरंजी चाल का हिस्सा है। यह रणनीति अब आज के परिवेश में कही भविष्य की राजनीति की सफलता की नाव में सुराग करने की और इशारा कर रही है। नपा, मंडी ऐसे प्लेटफार्म एवं मंच है, जिससे संगठन एवं कार्यकताओं के धरातल की नींव संभव है।

संभवत इस इशारे का परिणाम हैकि अबकि बार कांटे का मुकाबला दोनों दलों में लोगों की जुबान पर है। अतीत के इतिहास पर केद्रित एक विशेष रिपोर्ट जो यह इशारा करती हैकि कांग्रेस के सूबे के सरदार को अपनी सियासती चाल को अब बदलना होगा। अन्यथा हार से पूरा इतिहास भरा पड़ा है। इतिहास के आईने में इस प्रकार है प्रजातंत्र की इस कुसी के स्वयंबर की यह कहानी इस प्रकार है।

डा. सरिता को रास नही आई राजनीति

पिछला नपा का चुनाव वर्ष 2014 में सीधे अध्यक्ष प्रणाली से हुआ। इस वर्ष भी कांग्रेस की पंरपरागत पराजय का सिलसिला थमता नजर नहीं आया। अर्थात अतीत की हार का मिथक नहीं टूट पाया। श्री गुर्जर की पंसद पर ही कांग्रेस के लिए तेज- तर्राट उम्मीदवार डॉ. सरिता के चेहरे को सामने लाया गया। उन दिनों सरिता एमबीबीएस की शिक्षा लगभग पूरी कर चुकी थी। जोकि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता स्व. टीकाराम टटावत की बेटी है। इस उम्मीदवार को देख कर शहर में कयास लगाए जा रहे थेकि यह भाजपा को अबकि बार मुसीबत खड़ी कर देगी। लेकिन सारे समीकरण गड़बड़ाए और कांग्रेस के पराजय इतिहास की पुनरावति हो गई। समझ में नहीं आया डॉ. सरिता को मतदाताओं ने क्यों नकार दिया। हालांकि डॉ. सरिता ने भाजपा उम्मीदवार अशोक मालवीय को विचलित तो किया पर वह मामूली लगभग 2200 मतों के अंतर से हार गई। बाद में वह सियासत को तिलांजलि देकर डाक्टरी के पेशे में लौट गई।

ज्योति मेहता को नसीब हार

वर्ष 2009 आरक्षित महिला सीट से दिलीपसिंह गुर्जर की मंशा पर कांग्रेस ने शहर के जाने-माने व्यापारी गोविंद मेहता के भाई राजेश की पत्नी ज्योति मोहता को मैंदान में उतारा। उधर, भाजपा ने श्रीमती शोभा यादव पर विश्वास जताया । हालांकि दोनों के बीच कड़ा मुकाबला हुआ और ज्योति मोहता 3156 मतों से चुनाव हार गई। कुल प्राप्त मत 42,112 में से शोभा यादव को 21,523 मत मिले और ज्योति मेहता 18,367 मत पाकर कांग्रेस की परंपरागत हार की वाहक बनी।

कांग्रेस हारी, निर्दलीय को ताज

इस शहर की नपा सियासत में वर्ष 2004 में अनूठा करिश्मा हुआ। कांग्रेस तो हारी भाजपा भी शिकस्त खा गई। कई वर्षो से राजनीति का वनवास काट चुके बालेश्वर दयाल जायसवाल को शहर सरकार की कुर्सी नसीब हुई। इधर, वर्ष 2003 में श्री गुर्जर निर्दलीय चुनाव चिन्ह इंजिन से चुनाव जीत कर विधानसभा में पहुंचे। इस उपलब्धि पर इस सूबे का नाम पूरे प्रदेश में सुर्खियों में आया। संभव इस उपलब्धि ने श्री गुर्जर की एकाधिकार की राजनीति को और अधिक बल दिया। इस दौरान नपा के चुनाव ने दस्तक दी। दिलीपसिंह भले निर्दलीय विधायक थे लेकिन कांग्रेस पर भी अपना साम्राज्य बरकरार रखा। इस काल में कांग्रेस ने वर्ष 2004 म नपा अध्यक्ष के सीधे चुनाव में बाबूलाल गुर्जर को टिकट दिया। इधर, भाजपा ने जाने-माने मजदूर नेता गंगाराम पर विश्वास जताया। दो गुर्जर बिरादरी के प्रत्याशियों के आपस में टकराने का लाभ मिला और निर्दलीय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बालेश्वर दयाल बाजी मार गए। हालांकि इस जीत को कांग्रेस की झोली में नहीं माना सकता था कारण कांग्रेस प्रत्याशी हार गए।

इस टक्कर में भाजपा तीसरे नंबर पर चली गई। श्री जायसवाल को 14,379 वोट, बाबूलाल गुर्जर 12 हजार 551 मत तथा गंगाराम गुर्जर के हिस्से में 12125 वोट आए। यहां पर श्री जायसवाल अध्यक्ष जब नपा में बने तो भाजपा को जीत रास नहीं आई और उनको कुर्सी से हटाने की चाल अपनी प्रदेश की हुकूमत के दम पर चली गई। श्री जायसवाल अपने अध्यक्ष काल में 3 बार कुर्सी से बेदखल करने की सियासत के शिकार हुए। जिसमें एक बार कांग्रेस के शासन काल में गुटीय समीकरण से कुर्सी गंवाना पड़ी। कांग्रेस सरकार में ही श्री जायसवाल तत्कालीन एक मंत्री की कोप भाजन के शिकार हुए। और अनियमितता के आरोप में अध्यक्ष पद से हटा दिया गया । स्थानीय कांग्रेस राजनीति का भी रंग चढा।

दो बार श्री जायसवाल की प्रजातांत्रिक प्रणाली से अध्यक्ष पद की कुर्सी कोभाजपा ने बेदखल किया। लेकिन न्याय की इंसाफ की लड़ाई में अदालत ने उन्हें फिर कुर्सी पर बैठाया। लेकिन श्री जायसवाल की यह कुर्सी कांग्रेस के बैनरतले नसीब नहीं हुई। एक बार अदालत के आदेश पर कुर्सी पर काबिज होने के बाद दूसरी बार फिर इसी प्रकार की भाजपा विचारकों की शिकायतों पर श्री जायसवाल को पद से हटाया गया।

उपचुनाव में भी निराशा

वर्ष 2006 में उपचुनाव हुआ। कारण कि निर्दलीय अध्यक्ष बने बालेश्वर दयाल जायसवाल को मप्र शासन ने अयोग्य करार दिया ओर पद से हटा दिया। हालांकि यह समीकरण प्रदेश भाजपा सरकार के कार्यकाल में एक सोची- समझी रणनीति के तहत श्री जायसवाल को हटाने के लिए किया गया। इस उपचुनाव में श्री जायसवाल के बेटे तथा युवक कांग्रेस के पूर्व जिला अध्यक्ष कृष्णकांत जायसवाल को कांग्रेसे से टिकट दिया गया। यह टिकट आखिरकार जायसवाल परिवार की झोली में इसलिए आया कि पूर्व कांग्रेस सांसद प्रेमचंद गुड्डू ने दिलीपसिंह गुर्जर को विश्वास में लिया ओर दोनों श्री जायसवाल एवं गुर्जर के बीच सियासती दोस्ती से हाथ मिलाए। इधर, इस चुनाव में, भाजपा ने गोपाल यादव को टिकट दिया। ऐसी स्थिति में कृष्णकांत के चुनाव में सभी शिकवे – शिकायतों को भूलकर श्री गुर्जर कांग्रेस उम्मीदवार के चुनाव प्रचार में उतरे। लेकिन कांग्रेस का दुर्भाग्य था कि कृष्णकांत मात्र 613 मतों से चुनाव हार गए। हालांक पूर्व सीएम दिग्गी राजा की विशाल आमसभा के बाद भी जीत नसीब नहीं हुई। गोपाल को 17, 781 तथा कृष्णकांत को 17 हजार 168 वोट मिले। इस हार को लेकर बड़ा बवंडर कांग्रेस ने इसलिए खड़ा किया थाकि तत्कालीन एसडीएम एवं निर्वार्चन अधिकारी नरेंद्र सूर्यवंशी ने जोकि इन दिनों रतलाम के कलेक्टर हैं, ने प्रेस को कुल गिरे मतों की संख्या कुछ बताई और गणना में कुछ निकले थे। परिणाम के बाद काफी विवाद हुआ था। लेकिन कांग्रेस प्रत्याशी चुनाव हार गए।

तकदीर ने साथ नहीं दिया

वर्ष 1993 में दिलीपसिंह गुर्जर कांग्रेस की टिकट से चुनाव जीतने के बाद सीधे नपा में अध्यक्ष चुनने की प्रणाली से चुनाव 1999 में हुए। इस काल में कांग्रेस सियासत पर विधायक श्री गुर्जर का दबदबा रहा। लेकिन टिकट की बात आई तो सारे समीकरणों को ओवरटेक कर वरिष्ठ अभिभाषक विजय वर्मा टिकट प्राप्त करने में सफल हुए। उन दिनों विजय वर्मा युवक कांग्रेस की राजनीति में एक सक्रिय चेहरा थे। नपा अध्यक्ष पद की यह कुर्सी महिला के आरक्षण के हिस्से में आईथी ।

अभिभाषक विजय वर्मा की पत्नी श्रीमती सुनिता वर्मा को टिकट मिला। हालांकि वर्मा के सियासती तार बालेश्वर दलाल की सियासती गलियारों से जुड़े थे। लेकिन यह चौकांने वाली बात थीकि दिलीपसिंह गुर्जर की प्रभावी राजनीति के चलते तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष राधाकिशन मालवीय से रिश्तों के चलते श्री वर्मा की झोली में टिकट आया। एक अच्छे रणनीतिकार माने जाने वाले अभिभाषक विजय वर्मा संभवत दिलीपसिंह गुर्जर से गुटीय संतुलन नहीं कर पाए और सीधी टक्कटर में श्रीमती सुनिता भाजपा की श्रीमती विमला वर्मा से लगभग 6400 मतों से चुनाव हार गई।

उंट की करवट का इंतजार

अबकि बार यह स्वर गूंज रहे हैकि विधायक गुर्जर मैंदान में मुस्तैदी से उतरे हैं। वे कांग्रेस का बोर्ड बनाने के लिए आतुर है। यदि यह खबर सच है तो कांग्रेस के लिए सुकून से भरी है। संभवत भाजपा ने इस रणनीति को भांप लिया है। जिसको लेकर कैलाश विजयवर्गीय , सांसद अनिल फिरोजिया जैसे राष्ट्रीय स्तर की राजनेताओं को नपा जैसे चुनाव में सडक़ों पर उतार दिया। इसी प्रकार से प्रभारी मंत्री जगदीश देवड़ा एवं मप्र शासन असंगठित कामगार कल्याण बोर्ड के चैयरमैन सुल्तानसिंह शेखावत ने भी मोर्चा संभाल रखा है। इधर, गुर्जर स्वयं गली- गली में मतदाताओं से रूबरू हो रहे हैं। कांटा जोड़ का यह सियासी दंगल का जुगाली करता उंट किस करवट बैठेगा अब उसका इंतजार है।

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