उज्जैन नगर निगम महापौर के चुनाव परिणाम पूरे प्रदेश में चर्चा का विषय है। अप्रत्याशित परिणामों ने इस धारणा को और अधिक बल दिया है कि राजनीति में कर्म से ज्यादा भाग्य प्रधान होता है, वर्ष 2005 में महापौर पद के लिये हुए चुनाव में भी सोनी मेहर जी ने विजयश्री का वरण करके सिद्ध किया था। चुनाव परिणामों में भले ही सज्जन पुरुष मुकेश टटवाल जी ने भाग्य के धनी होकर नगर के प्रथम नागरिक होने का गौरव पा लिया हो परंतु शायद उनकी जीत से ज्यादा चर्चे महेश परमार की हुई दुर्भाग्यपूर्ण पराजय के हैं।
सामान्य कद काठी के महेश परमार के चुंबकीय व्यक्तित्व का जादू उज्जैनवासियों के सिर चढक़र बोला। उज्जैन नगर निगम से 12 वर्षों का राजनैतिक वनवास झेल रही मृतप्राय: पड़ी काँग्रेस पार्टी में जान फूँकने का काम नवजवान महेश परमार ने कर दिखाया। आई.सी.यू. में पड़े काँग्रेस नेताओं को सामान्य वार्ड तक लाने में महेश जी सफल रहे परंतु दुर्भाग्यवश इस शहर के बड़े ब्राण्डेड काँग्रेसी नेता जनता तक नहीं पहुँचे शायद बड़े नेता ईमानदारी से अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन कर लेते तो यह वनवास खत्म हो जाता है।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह जी की दो-दो चुनावी यात्राएँ, केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया का रोड शो और नुक्कड़ सभाएँ, वहीं दूसरी ओर अच्छे वक्ताओं और नेताओं के अभाव में जूझ रही काँग्रेस पार्टी में सिर्फ कमलनाथ की एक आमसभा।
महेश को जब नेताओं का साथ नहीं मिला तो वह अकेले ही इस राजनैतिक महासंग्राम में कूद पड़े अपने परिश्रम और मधुर व्यवहार की वजह से महिला, पुरुष, नवजवानों की भीड़ उनके साथ जुड़ती गयी। वह इस चुनावी समर में ठीक वैसे ही खड़े थे जैसे वर्षों पूर्व महाभारत के युद्ध में धुरंधर यौद्धाओं के बीच अभिमन्यु। अकेला महेश और सामने प्रदेश के मुखिया, सांसद, मंत्री, विधायक, आरएसएस जैसा अनुशासनात्मक संगठन, भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज और सत्ता से प्रभावित प्रशासनिक अधिकारी। इस चुनावी संग्राम में महेश का भी वही अंत हुआ जो महाभारत में अभिमन्यु का हुआ था।
खैर राजनीति में हार-जीत तो चलती ही रहती है जब इस देश के प्रधानमंत्री पद को सुशोभित कर चुकी स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी और परम श्रदेय अटलजी चुनाव में पराजय का स्वाद चख सकते हैं तो फिर महेश परमार की क्या बिसात?
सिमट गया भाजपा की जीत का आँकड़ा
विधायक महेश परमार ने जिस जीवटता के साथ इस संग्राम को लड़ा है वह भारतीय जनता पार्टी के लिये चिंता का विषय जरूर बन गया है। वर्ष 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में उत्तर व दक्षिण विधानसभा मिलाकर भारतीय जनता पार्टी की जीत का आँकड़ा हजारों का था वह अब सिमटकर मात्र 736 मतों का ही रह गया है। आगामी 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव और फिर 2024 के लोकसभा चुनावों में महेश की यह मेहनत अवश्य रंग लायेगी।
‘डर मौत का नहीं, डर इस बात का है कि यमराज ने घर देख लिया’। शायद काँग्रेसी भी अपने किये पर अब पछता रहे होंगे पर जब चिडिय़ा चुग गयी खेत तब पछताने से क्या होगा। अपनी पराजय को सहजता से स्वीकारना ही आदर्श राजनीति है। शायद महेश के दुर्भाग्य में उदयपुर की घटना का भी महत्वपूर्ण योगदान है और महापौर प्रत्याशी मुकेश टटवाल जी को बैरवा समाज के होने का लाभ मिला है। जीत के बाद भले ही भाजपा में सेहरा अपने सिर बाँधने की होड़ लगी हो परंतु बैरवा समाज की सामूहिक एकता के कारण ही दक्षिण विधानसभा से मुकेश टटवाल जी को ऐतिहासिक बढ़त मिली है।