कुचल डालो जहरीले रैगिंग के फन को

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समाज के लिये अभिशाप बनाकर 7 से 8वीं शताब्दी से प्रारंभ हुयी रैगिंग ने कवि प्रदीप के नाम से पहचाने जाने वाली कालजयी नगरी बडऩगर (जिला उज्जैन) निवासी 22 वर्षीय होनहार युवक चेतन पाटीदार की जान ले ली।

28 फरवरी 2022 को चेनत ने देश में स्वच्छता अनेक वर्षों से नंबर 1 का खिताब जीतने वाले इंदौर के इंडेक्स मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस (बैचलर ऑफ मेडिसीन बैचलर ऑफ सर्जरी) के प्रथम सेमेस्टर में प्रवेश लिया था। चेतन ने उसके वरिष्ठ छात्रों द्वारा अमानवीय तरीके से ली जा रही रैगिंग से परेशान होकर मौत को गले लगा लिया।

हमारे भारत के अलावा पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका भी रैगिंग का दंश झेलते हैं। इन देशों के महाविद्यालयों में नवीन प्रवेश लेने वाले छात्र मानसिक व शारीरिक यातनाएँ झेलते हैं। दुनिया में श्रीलंका रैगिंग से प्रभावित देशों में सिरमौर है।

दुनिया को सबसे पहले कला, साहित्य, दर्शन विज्ञान का ज्ञान देने वाला ‘ग्रीस’ देश की धरती इस रैगिंग जैसी कुप्रथा को जन्म देने वाली मानी जाती है।

बताया जाता है कि सातवीं और आठवीं शताब्दी के मध्य में ग्रीस के खेल समुदायों में नये खिलाडिय़ों में खेल भावना जगाने के लिये रैगिंग की शुरुआत हुई। नये (कनिष्ठ) खिलाडिय़ों को वरिष्ठ खिलाडिय़ों द्वारा चिढ़ाया और अपमानित किया जाता था। खेल मैदान से होती हुयी यह बीमारी वहां की सेना तक पहुँच गयी। सेना से वापसी के बाद जो पूर्व सैनिक अध्ययन हेतु महाविद्यालयों में प्रवेश लेते थे, उन्होंने सेना से इसे शिक्षा जगत में पहुँचा दिया।

पूर्व सैनिक चूँकि रैगिंग का शिकार रहते थे इस कारण प्रतिशोध के वशीभूत होकर वह महाविद्यालयों में आये नये छात्रों की रैगिंग लेने लग,े जो शनै:शनै: हिंसक रूप धारण करने लगी। 18वीं शताब्दी आते आते यूरोपीय देशों में छात्र संगठन निर्मित होने लगे जिनके नाम अल्फा, बीटा, गामा, फी, एपिसिलोन, डेल्टा आदि रखे जाने लगे। अब यह छात्र संगठन सामूहिक रूप से रैगिंग लेने लगे। दुनिया भर के लाखों छात्र इस रैगिंग के शिकार होने लगे।

विश्व के देशों में इस रैगिंग को अलग-अलग नामों से जाना जाने लगा। कहाँ हेजिंग, कहीं फेगिंग, कहीं बुलिंग, कहीं प्लेजिंग और कहीं हार्स प्लेइंग के नाम से इस सामाजिक बुराई को जाना जाने लगा।

रैगिंग के कारण दुनिया में पहली मौत न्यूयॉर्क के कारनेल विश्वविद्यालय के छात्र की सन् 1873 में हुई। जब रैगिंग से परेशान होकर विश्वविद्यालय की इमारत से कूदकर उसने जान दे दी। भारत में रैगिंग की शुरुआत देश की आजादी के पूर्व ही हो गयी थी। आजादी के बाद सन् 1960 तक रैगिंग में हिंसा शामिल नहीं थी तब इसका उद्देश्य सुखद होकर कनिष्ठ तथा वरिष्ठ छात्रों के बीच दोस्ती बढ़ाना था।

90 के दशक में निजी मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों की बाढ़ आ गयी। साथ ही मीडिया का प्रभाव भी बढऩे लगा जिसके फलस्वरूप छात्रों ने इस रैगिंग नामक बुराई को हिंसक रूप दे दिया और इसने भयानक रूप ले लिया।

वरिष्ठ छात्रों द्वारा नये छात्र-छात्राओं को विशेष समय के लिये एक विशेष डे्रस पहनने के लिये कहा जाने लगा, पूरी तरह काले या सफेद कपड़े, तेल लगे हुए बाल, विशेष हेयर स्टाइल, बिना पट्टी की शर्ट, लड़कियों के लिये स्कर्ट जैसे उलजलूल फरमान जारी किये जाने लगे।

वर्ष 1997 में तमिलनाडु में रैगिंग के सर्वाधिक मामले दर्ज किये गये। 2017 में हुए एक सर्वे के अनुसार भारत के लगभग 40 प्रतिशत छात्रों को किसी न किसी रूप में रैगिंग का सामना करना पड़ता है। बीते सात वर्षों के दौरान इस कारण 54 छात्रों ने अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली है। वर्ष 2001 में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने रैगिंग जैसी सामाजिक बुराई पर संज्ञान लेते हुए पूरे भारत में रैगिंग पर प्रतिबंध लगा दिया साथ ही केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो के पूर्व निदेशक ए. राघवन की अध्यक्षता में एक समिति भी गठित की।

उच्चतम न्यायालय की तर्ज पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने भी रैगिंग के विरुद्ध सख्त नियम बनाये। उच्चतम न्यायालय ने रैगिंग को अपराध माना और 3 साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान किया। इसके बावजूद भी हर साल देश में बच्चे इसका शिकार बन रहे हैं।

छात्रों के वेश में आसुरी प्रवृत्तियां महाविद्यालयों में स्वच्छंद विचरण कर रही है जो रैगिंग जैसे घृणित अपराध से छात्र जीवन को नष्ट कर रही है। भयावह होती स्थिति के कारण अनेक छात्र अपना विद्याध्ययन बीच में ही छोडक़र वापस घर लौट जाते हैं या आत्मग्लानि और शर्मिंदगी के कारण मौत को गले लगा लेते हैं जैसे बडऩगर के होनहार छात्र चेतन पाटीदार ने किया जिसे वरिष्ठ छात्रों द्वारा घंटों तक नग्न खड़ा किया जाता था और अमानवीय बर्ताव किया जाता था।

समय आ गया है केन्द्र सरकार इस मामले में संज्ञान ले और रैगिंग के फलस्वरूप होने वाली मौत को हत्या की तरह गंभीर अपराध माना जाए और इसके लिये जिम्मेदारों को 3 वर्ष के कारावास की जगह आजन्म कारावास या मृत्यु दंड में बदला जाये तभी रैगिंग जैसी केंसर रूपी सामाजिक बुराई का अंत होगा और रैगिंग के कारण हुयी असामयिक मृत्यु को प्राप्त दिवंगतों की आत्मा को शांति मिलेगी।

– अर्जुन सिंह चंदेल

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