बैंकों का निजीकरण कितना सही कितना गलत?

भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने बताया कि केन्द्र सरकार द्वारा औद्योगिक घरानों को बैंक बेचना भारी गलती साबित होगा और भविष्य में देशवासियों को इसकी भारी कीमत चुकानी होगी। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर के बयान के बाद देशभर की बैंकों की हड़ताल का आज दूसरा दिन है।

देश भर में बैंक कर्मचारियों द्वारा आंदोलन के माध्यम से केन्द्र सरकार के बैंकों के निजीकरण का विरोध किया जा रहा है। सुधि पाठकों को अतीत में जाना होगा जब 19 जुलाई 1969 में देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने देश के 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके सबको चौंका दिया था।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पीछे बहुत बड़ा मकसद था। उस समय देश में कर्ज वितरण में इन निजी बैंकों की 85 प्रतिशत हिस्सेदारी थी और सरकार को पता चला कि निजी बैंकें सिर्फ औद्योगिक घरानों को ही ऋण वितरण कर रही है और मध्यमवर्गीय लोगों को प्राथमिक ऋण से भी वंचित रख रही है।

सन् 1951 से लेकर 1967 तक के ऋण वितरण के आँकड़ों का अध्ययन किया गया तो पता चला कि सन् 1951 में औद्योगिक घरानों को ऋण वितरण का जो प्रतिशत 34 था वह 1967 में बढक़र 64.3 प्रतिशत हो गया लेकिन इन बीते 16 वर्षों में कृषि को 2 प्रतिशत से कम ऋण दिया गया था।

इसी के मद्देनजर श्रीमती इंदिरा गाँधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का साहसिक कदम उठाया। सन् 1969 में देश की 14 निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 11 वर्षों बाद सन् 1980 में 6 और निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।

देशवासियों के विश्वास की कसौटी पर राष्ट्रीयकृत व निजी बैंकों को तौलने के लिये यह आँकड़े महत्वपूर्ण है कि 26 जून 2019 तक 35.99 करोड़ जन-धन खाते खुले जिनमें से 34.73 करोड़ खाते राष्ट्रीयकृत बैंकों में और मात्र 1.26 करोड़ खाते निजी बैंकों में खोले गये। वर्ष 2016 तक वितरित किये गये 72336 करोड़ के शिक्षा ऋण देने में 90 प्रतिशत हिस्सेदारी सरकारी बैंकों की थी मात्र 10 प्रतिशत ही निजी बैंकों ने दिया है।

वर्ष 1969 और 2021 के बीच समय रूपी नदी में बहुत पानी बह चुका है। उस समय जिस निजी क्षेत्र को सरकारें खलनायक मानती थी आज की सरकार निजी क्षेत्र को खलनायक की जगह अपना परम हितैषी, शुभचिंतक और दोस्त मानती है।

बैंकिंग क्षेत्र डूबे कर्ज के कारण इस समय अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक खस्ताहाल स्थिति में है। केन्द्र की सरकार को साल दर साल इन राष्ट्रीयकृत बैंकों में पूँजी डालना पड़ रही है। वर्ष 2015 से 2020 तक बेड लोन के कारण सरकार को इन राष्ट्रीकृत बैंकों में 3.2 लाख करोड़ का पूँजी निवेश करना पड़ा था।

इसी कारण केन्द्र की मोदी सरकार ने जहाँ 2017 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में 5 सहायक बैंकों और भारतीय महिला बैंक का विलय कर दिया वहीं सार्वजनिक क्षेत्र के 27 बैंक हुआ करते थे वर्ष 2019 में देना बैंक और विजया बैंक का बैंक ऑफ बड़ौदा में विलय कर दिया। वर्ष 2019 में शेष बचे 18 सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों में से 10 बैंकों का आपस में विलय कर 4 बैंक बना दिये।

1 अप्रैल 2020 की स्थिति में 12 सरकारी बैंकों का ही अस्तित्व शेष रहा। इस वर्ष के बजट में वित्त मंत्री नीति आयोग की सिफारिशों पर पंजाब एण्ड सिंध बैंक, यूको बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र, आईडीबीआई बैंकों का निजीकरण करने जा रही है साथ ही देश भर के सभी ग्रामीण बैंकों का इंडिया पोस्ट ऑफिस में विलय करने जा रही है।

सरकार की स्पष्ट मंशा है कि वह कमजोर बैंकों की जगह 4 या 5 बैंक ही अपने पास रखेगी जिसमें भारतीय स्टेट बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा और केनरा बैंक प्रमुख नाम है। शेष बैंकों का या तो विलय या निजीकरण कर दिया जायेगा। सरकार चाहती तो बैंकिंग सेवा क्षेत्र में सुधार कर निजीकरण को रोका जा सकता था परंतु सरकार ने निजीकरण का रास्ता चुनकर अपनी जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाने का प्रयास किया।

सार्वजनिक क्षेत्र के धड़ल्ले से किये जा रहे निजीकरण का प्रभाव देश पर क्या होगा यह अभी भविष्य के गर्भ में है परंतु ऐसा न हो अब पछताये क्या होत है जब चिडिय़ा चुग गई खेत की कहावत चरितार्थ हो जाए और देश 1967 की स्थिति में ना आ जाए।

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