मामा बालेश्वर होते तो बहाते खूब आंसू आश्रमों की असलियत देख, भील आश्रम माफियाओं के गिरफ्त में

अगर कोई चुप है तो इसका मतलब ये नहींं की उसे बोलना नहींं आता,
हो सकता है वो थप्पड़ मारने में यकीन
रखता हो!
हमारी शराफत का फायदा उठाना बंद
कर दो,
जिस दिन हम बदमाश हो गए कय़ामत आ जायेगी!

ये पंक्तियां इतिहास पुरूष स्वातन्त्र्यवीर मामा बालेश्वर दयाल जी के महाप्रयाण के बाद उनके आश्रम पर कथित रूप से कब्जाने वालों के लिये सामयिक ही दिखाई देती है। जिले ही नहीं अपितु राष्ट्रीय राजनीति में डूंगर गांधी के नाम से ख्यात हुए मामा बालेश्वर दयाल जा ेकि एक प्रखर पत्रकार,समाजवादी चिंतक, धर्मांतरण के घुर विरोधी हो कर आदिवासियों के मसीहा कहे जाने लगे। उनके निधन के पश्चात मामाजी द्वारा उनकी कर्मस्थली बामनिया में स्थापित दोनों आश्रम जिनमे एक नया ओर एक पुराना है।

अस्तित्व की लड़ाई में भूमाफियाओं, विधर्मियों, संघों के चक्रव्यूह में फसता नजर आ रहा। हाल ही में 26 दिसम्बर के मामाजी की 23 वी पुण्यतिथि, उनके अनुयायियों ने श्रद्धा पूर्वक मनाई। इस से पूर्व भी देश प्रदेश के समाजवादी नेता जो केंद्र और प्रदेश सरकारों में मंत्री रह चुके, ने घडिय़ाली आंसू बहाकर खूब लुभावनी घोषणाएं कर राजनीतिक रोटियां तोड़ी।

किन्तु मामाजी के ये आश्रम बजाए उन्नत होने के जर्जर होकर नियम विरुद्ध न केवल नामान्तरित हो गये, वरन भूमाफियाओं की गिद्ध नजर का शिकार हो गया। प्रति वर्ष पुण्यतिथि पर आने वाले लाखों रुपये की श्रद्धानिधि राशि का भी 23 वर्षों में न कोई हिसाब और ना ही किसी को कुछ पता। यह बात उस समय पता लगी जब पुण्यतिथि पर पहुंचे। इस असलियत को जानने का प्रयास किया तो चौकाने वाली स्थिति सामने आई। तो मामा बालेश्वरदयाल द्वारा स्थापित भील आश्रम का अस्तित्व बचाने नजरें टेढ़ी करने को विवश होना पड़ा।

क्या है असलियत बामनिया स्थित भील आश्रम की

भील आश्रम बामनिया जो कभी देश की राजनीति को दिशा प्रदान करता था, अब वह वर्तमान में मौन, विरान, उजाड़ आश्रम बनाम आश्रम रह गया। आश्रम की जमीन हड़पने और इसे बेचने को लेकर अब हद तब हो गयी जब बालेश्वर दयाल दीक्षित के नाम पुराना व नया दोनों आश्रम जिसे मामा बालेश्वर दयाल दीक्षित ने भील आश्रम नाम दिया था, आश्रम निवासी सुशीला पिता मूर्ति मेडा ने अपने नाम नामान्तरण करवा लिए।

जानकारी अनुसार मामा बालेश्वर दयाल ने कभी किसी के नाम कोई वसीयत लिखी ही नहीं तो आश्रम व उसकी जमीन किसी अन्य के नाम कैसे नामान्तरण हो गयी? यह प्रशासनिक तंत्र की कार्यप्रणाली पर बड़ा प्रश्नचिन्ह है? कानूनन मामा बालेश्वर दयाल दीक्षित के परिजन ही उनके वारिस हो सकते हैं। यह मामला बहुत गंभीर, संवेदनशील है। कलेक्टर से ले कर कमिश्नर ओर सरकार कों इस मामले में स्वत: संज्ञान ले कर उच्च स्तरीय जांच कर दोषियों को दंडित करना चाहिए।

स्वतंत्रता सेनानी मामा बालेश्वर दयाल ने 1937 में डूंगर विद्यापीठ भील आश्रम बामनिया की स्थापना की थी। उन्होंने अपने जीवनकाल में ही आश्रम का स्थान परिवर्तन किया था। इसलिए पुराना आश्रम ओर नया आश्रम के नाम भील आश्रम पहचाने जाते हैं। मूर्ति भाई उनकी लडक़ी और परिवार भी आश्रम परिसर में रहते हैं। समीप ही विजयसिंह का परिवार भी रहता है। ये दोनों मामा बालेश्वर दयाल दीक्षित के नाम की कृषि भूमि पर खेती करते रहे। 1989 में मूर्ति भाई ने पुराने आश्रम की भूमि पर लगभग 32 आवासीय प्लाट काट कर उनकी रजिस्ट्री भी संभवत: करवा दी थी। किन्तु बामनिया की भाजपा नेत्री और पत्रकार ग्यारसी बाई की शिकायत पर प्रकरण दर्ज हुआ था। तब राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के चलते भाजपा नेता लक्ष्मीनारायण पाठक ने मामाजी का नाम भी सम्मिलित करवाया था, जिसके चलते मामा बालेश्वर दयाल को भूमिगत रहकर जमानत भी करवाना पड़ी थी। यह बात जब भाजपा के वरिष्ठ नेता कुशाभाऊ ठाकरे तक पहुची तो उन्होंने कहा था कि मामाजी ऐसा नहीं कर सकते। मामला कलेक्टर के पास पहुंचा तो तत्कालीन कलेक्टर संजय जोशी ने सभी प्लाटों की रजिस्ट्रियां निरस्त कर दी थी।

बकौल आश्रमवासी विजयसिंह ने बालेश्वरदयाल दीक्षित के नाम कृषि भूमि की चोपड़ी में सह कृषक के रूप में अपना नाम येन-केन-प्रकारेण करवाया और मामाजी के निधन पश्चात विजय सिंह ने अपना नाम राजस्व रिकार्ड में चढ़वा लिया। उक्त भूमि पर भी प्लाट काट कर बेचने का असफल प्रयास किया था। तब मामाजी की मानस पुत्री मालती बेन ने न्यायालय की शरण ली थी। मामाजी के भाई ब्रह्मदत्तजी दीक्षित के पुत्र-पुत्री ने मालती बेन के नाम केवल न्यायालयीन कार्रवाही हेतु पॉवर ऑफ अटर्नी उन्हें दी थी। मालती बेन ने ऊक्त पावर ऑफ अटर्नी के माध्यम से न्यायालय की शरण ली तब न्यायालय प्रथम व्यवहार न्यायाधीश वर्ग एक पेटलावद ने 28 जनवरी 2013 में सुनाए फैसले में स्पष्ट कहा था कि बालेश्वरदयाल दीक्षित के वारिस ही आश्रम के वारिस हो सकते हैं, दूसरा कोई नहीं। ऐसी स्थिति में आश्रम का नाम नामान्तरण का मामला चौकाने वाला होने के साथ ही समझ से परे भी है। भाजपा नेत्री, पत्रकार ग्यारसी बाई परिहार ने बामनिया स्थित पुराना व नया भील आश्रम किस आधार पर सुशीला पिता मूर्ति के नाम पर की जानकारी सूचना का अधिकार में चाही तो ग्राम पंचायत बामनिया के सचिव ने 20 सितम्बर 2020 में जानकारी देते हुए बताया कि सुशीला पिता मूर्ति के नाम नामान्तरण लगभग 30 वर्ष पहले रिकार्ड में दर्ज होकर वर्तमान तक चलता आ रहा है। भवन क्रमांक पंजी के अनुसार सुशीला पिता मूर्ति का नाम ग्राम पंचायत बामनिया की भवन कर पंजी के अनुसार अनुक्रमांक 3/6 के पृष्ठ क्रमांक 46 पर दर्ज है। जबकि न्यायालय के अनुसार बालेश्वर दयाल दीक्षित के परिजन ही वारिस हो सकते है। अब बड़ा सवाल यह कि मामाजी के निधन को अभी 23 वर्ष हुए और नामान्तरण 30 वर्ष पूर्व होना बताया गया यह आखिर कैसे संभव हुआ? मनन करने योग्य है। मामाजी के जीवन काल मे मामाजी ने तो कभी वसीयत लिखी ही नहीं ओर नहीं किसी को वारिस दर्शाया। ऐसा होता तो रिकार्ड ग्राम पंचायत में ओर राजस्व विभाग में भी कही तो मिलता। पूरा मामला उच्चस्तरीय जांच का है । ताकि मामाजी के नाम से इस ऐतिहासिक स्थान का वजूद भविष्य में नेस्तनाबूद नहीं हो सकें । अन्त मे यही कहेंगे कि-

किस को पार उतारा तुम ने किस को पार उतारोगे,
मल्लाहो तुम परदेसी को बीच भँवर में मारोगे
मुँह देखे की मीठी बातें सुनते इतनी उम्र हुई,
आँख से ओझल होते होते जी से हमें बिसारोगे।

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