भाई साहब को मात दे दी बच्चे ने

झाबुआ। एक कहावत है किसी को उंगली पकड़ाओ तो वो चलना सिख सिखाने वाले का ही गला पकडऩे की फिराक में रहता है किन्तु उंगली पकडऩे वाले कि यह धारणा जब सार्वजनिक रूप से असत्य हो जाए तो फिर उसे मुह की ही खाना पड़ती है ऐसा ही कुछ जिले के एक भाजपाई भाई साहब का हुआ। हालांकि इन भाई साहब का भाजपाई राजनीति में दब दबा कुछ कम नही है फिर भी कहते न ख्वाहिश कभी पूरी नही होती और विशेष कर राजनीति में तो यह सबसे ज्यादा होता है।

फिर राजनीति में एक सबसे बड़ी खूबी यह है कि दूसरे की टाँग खींचो ओर आगे बढ़ो कभी कभी अन्यो की टांग खिंचने में खुद की ही टांग फिसल जाती है। यही सब कुछ जिले के भाजपाई भाई साहब के साथ गत दिनों झबुआ के फव्वारा चोक स्थित एक सहकारी बैंक के निर्वाचन उसके अध्यक्ष के निधन के बाद होना था। अध्यक्ष के निधन के बाद संस्था के संचालकों ने निर्वाचन होने तक भाई साहब को कार्यकारी अध्यक्ष पद का दायित्व दिया। बस फिर क्या था भाई साहब को बैंक की चकाचोंध ओर अपने लिए एक एक निश्चित ठिया पाया का ठिकाना रात दिन नजर आने लगा।

अब भाई साहब ने अपने गुप्त पैतरे अपना कर बैंक में अपनी गोटी फिट करने की जुगाड़ शुरू कर दी। किन्तु भाई साहब यह भूल गए कि जिस बैंक संस्थापक ओर जिले की भाजपा के भीष्मपिता ने उन्हें राजनीति सिखाई तो बैंक कर्मियों को भी बैंक ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा से चलाने हेतु सहकारी क्षेत्र के गुर भी दिया होंगे और यही गुर उस सहकारी बैंक में काम आ गए।

बताते है बैंक के संस्थापक भीष्मपिता के जीवनकाल में कभी इस बेन का संचालक हो अथवा अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनाव की जरूरत नही पड़ी और सदा सर्वसम्मति से चुनाव होते रहे। उनके व उनके बाद उनके सच्चे शिष्य के अध्यक्ष पद पर रहते निधन के बाद जब बैंक के अध्यक्ष पद के उपचुनाव की बारी आई तो भाई साहब पहले ही सभी संचालकों को विश्वास में ले कर कुछ कदम बढ़ाते तो बच्चे से मात नही खाते।

निर्वाचन पश्चात जो संचालक अध्यक्ष बनाया उसे 15 संचालको में से 8 संचालको का समर्थन मिला और भाई साहब को 7 संचालको ने समर्थन दिया।निर्वाचित अध्यक्ष बैंक चुनाव के इतिहास में सबसे कम उम्र के संचालक होंगे जिन्हें सहकारिता का ज्ञान अपने पिता से विरासत में मिला है। हालांकि भाईसाहब की राजनीति को ऐसे चुनाव की हार से कोई फर्क नही पड़ता फिर भी चुनाव चुनाव है। अब विरोधी भाजपाई ही भाई साहब की हार का मजा चटखारे ले कर शहर से ले कर जिले की राजनीति में करते दिखाई दे रहे है।

बताने वालों का कहना है कि भाई साहब को अगले कार्यकाल का अध्यक्ष बनाने का अनुनय,विनय भी किया था बावजूद उसके भाईशाब तो बस अड़ गए कि बनू तो अभी ही अध्यक्ष बनू। नतीजा अब यही भाई साहब की विनम्रता जिद के आगे न केवल फीकी पड़ गयी अपितु भविष्य के लिए भी प्रश्न चिन्ह लगा गयी की भाई साहब बच्चे से नही बच पाए तो बैंक कैसे बचाएंगे?

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