हुड़दंग से किसान आंदोलन पर लगा ग्रहण

पिछले 60 दिनों से अनुशासित तरीके से चला आ रहा कृषि कानूनों के विरोध में किसान आंदोलन में गणतंत्र दिवस पर हुड़दंग का जो नंगा नाच किया है वह बेहद शर्मनाक है। देश की आजादी के साथ ऐतिहासिक लाल किले की प्राचीर ने गणतंत्र दिवस पर जो दृश्य देखा उससे लाल किले की आत्मा भी चित्कार किए बिना नहीं रही होगी।

26 जनवरी पर पूरे दिन भारतवासियों ने टीवी चैनलों पर देश की राजधानी नई दिल्ली में गुंडागर्दी और अराजकता का जो नंगा नाच देखा, उससे हर भारतीय अपने आप को शर्मिंदा महसूस कर रहा है। भारत तो ठीक है परंतु दुनिया भर में किसान आंदोलन के बीच राष्ट्रीय पर्व पर जो भारत में हुआ वह देखा। इससे देश की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है।

किसानों ने मंगलवार को जो कुछ किया उसे किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना से किसान आंदोलन बैकफुट पर आ गया है। लाल किले की प्राचीर पर चंद हुड़दंगियों द्वारा ध्वज विशेष का फहराया जाना हमारे सुरक्षा तंत्र की बहुत बड़ी चूक है। निश्चित तौर पर हमारे खुफिया और सुरक्षा तंत्र में लगे बड़े-बड़े ओहदों पर वातानुकूलित कमरे में बैठे अधिकारी जो लाखों रुपए की तनख्वाह ले रहे हैं, उन पर इस घटना की जवाबदेही तय की जाना चाहिए।

सुरक्षाबलों द्वारा शांति और संयम से काम लेना तो समझ में आता है। परंतु जहां देश की अस्मिता और गौरव के साथ खिलवाड़ हो रहा हो वहां ऐसा संयम किस काम का? इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भीड़ में दिमाग या सोचने समझने की शक्ति नहीं होती। समूह का नेतृत्व किया जा सकता है परंतु भीड़ का नहीं। उन्मादी भीड़ नेतृत्व विहीन होती है।

सुधि पाठकों को याद होगा। 6 दिसंबर 1992 का वह दृश्य जब हजारों की संख्या में एकत्र कारसेवकों ने नेताओं के भाषण सुनने के बाद उन्माद में विवादित ढांचा ध्वस्त कर दिया था। मौके पर मौजूद तात्कालीन नेताओं ने भीड़ को बहुत समझाने की भी कोशिश की। परंतु तब तक देर हो चुकी थी और अनियंत्रित और दिशाहीन, नेतृत्व विहीन भीड़ ने न तो सुरक्षा बलों की परवाह की और ना ही नेताओं की। गणतंत्र दिवस पर दिल्ली की घटना भी कुछ इसी तरह की थी।

किसानों की भीड़ पर से नेतृत्व कर रहे नेताओं का नियंत्रण समाप्त हो चुका था। बेलगाम किसानों का एक धड़ा संयम खो कर लाल किले तक जा पहुंचा और जो कुकृत्य नहीं करना था, उसे करने में सफल हो गया। अपने अधिकारों के लिए आंदोलन कर रहे किसानों के साथ धीरे-धीरे देश के नागरिकों की और अन्य प्रांतों के किसानों की सहानुभूति बढ़ रही थी। मुंबई में 21 जिलों से आए 10 हजार से अधिक किसानों का प्रदर्शन और बेंगलुरु में कृषि कानून के विरोध में ट्रैक्टर मार्च भोपाल में जंगी प्रदर्शन से इस कृषि कानून के विरोध में देश भर में चिंगारी फैल रही थी।

आंदोलन के 62 दिनों बाद भी अब दोनों पक्षों का जिद पर अड़े रहना देश के प्रजातंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। केंद्र की सरकार इन कृषि कानूनों को बनाकर गलती तो कर बैठी है परंतु यदि वह इन कानूनों को वापस लेती है तो इससे उसकी किरकिरी होगी। इसी कारण उसने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है क्योंकि केंद्र सरकार के लिए इधर कुआं उधर खाई की स्थिति बन गई है।

दूसरी ओर किसानों का केंद्र सरकार पर विश्वास नहीं रहा। केंद्र के डेढ़ वर्ष तक इन कृषि कानूनों को लंबित रखने के आश्वासन पर किसानों का सोचना है कि केंद्र सरकार एक बार इस आंदोलन को शिथिल कर के समाप्त करने का षड्यंत्र रच रही है।

किसानों को भी सहमति की दिशा में दो कदम आगे बढऩा चाहिए और केंद्र सरकार को भी दरियादिली दिखाते हुए आगे अपना बड़प्पन दिखाना चाहिए। भारत के किसान भी यहां के नागरिक हैं और उनका भी इस देश पर पूरा अधिकार है। कुल मिलाकर गणतंत्र दिवस पर चंद किसानों द्वारा की गई दुर्भाग्यपूर्ण घटना से किसानों के आंदोलन पर हुड़दंग का ग्रहण लग गया है।

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