विमुक्ता जी के बलिदान पर समाज को आत्मचिंतन जरूरी

 अर्जुन सिंह चंदेल

देश के ह्रदय प्रदेश मध्यप्रदेश की व्यवसायिक राजधानी इंदौर में बीते दिनों मानवता को कलंकित, इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटना में बीएम कालेज की प्राचार्य विमुक्ता जी 5 दिनों तक मृत्यु से संघर्ष करते हुए हार गयी। दिल दहला देने वाली और रोंगटे खड़े कर देने वाले इस वीभत्स हत्याकांड से जहाँ एक ओर पूरा समाज कटघरे में खड़ा हो गया है वहीं दूसरी ओर अनादि काल के हमारा देश जो कि पूरी दुनिया में संस्कारों के लिये आदर्शों के लिये जाना जाता है उसकी आने वाली पीढ़ी पर भी दाग लगा है।

इस घटना ने बहुत सारे यक्ष प्रश्न पूरे भारतीय समाज के सामने खड़े कर दिये हैं। क्या हमारे समाज में माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन सही ढंग से कर रहे हैं? क्या देश के छात्रों को जो कि भविष्य की उम्मीद है क्या यह तंत्र उनके साथ न्याय कर पा रहा है? गुरू-शिष्य परंपरा वाले इस देश में जहाँ एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य को अपना अँगूठा दान कर दिया था, जहाँ सांदीपनि जी से भगवान ने स्वयं शिक्षा प्राप्त की, स्वामी विवेकानंद जी गुरू-शिष्य परंपरा का पालन कर पूरे विश्व में भारत का डंका बजाया हो क्या हम नयी पीढ़ी को ऐसे संस्कार दे पा रहे हैं? क्या कानून के प्रति आम नागरिकों के विश्वास को और मजबूत किये जाने की जरूरत है?

ऐसे तमाम प्रश्न देश और समाज के सामने एक बार फिर से खड़े हो गये हैं। घटना को अंजाम देने वाला छात्र तो एक निमित मात्र है जिसके सिर पर सवार राक्षसी शक्ति ने उससे यह दुष्कृत्य करवाया। परंतु जिस मानसिकता का शिकार वह छात्र हुआ है वह चिंताजनक है। हम बात करे सबसे पहले शिक्षण संस्थाओं की तो देश में कुकरमुत्तों की तरह स्तरहीन शिक्षण संस्थाएं तेजी से पनप रही है। शिक्षा संस्कार की जगह धनोपार्जन के केन्द्र रह गये हैं।

देश में विश्वविद्यालयों की स्थिति चिंताजनक है विद्यालयों, महाविद्यालयों में शिक्षा और संस्कार की जगह बाकी सब काम हो रहे हैं। अशिक्षित लोग भी धन के उद्देश्य से शिक्षा जैसे पवित्र व्यवसाय में आ गये हैं। महाविद्यालयों की स्थिति यह है कि डेढ़-डेढ़, दो-दो लाख वेतन लेने वाले व्याख्याता और प्रोफेसर मुश्किल से सप्ताह में चार पीरियड भी नहीं लेते हैं।

आज की नयी पीढ़ी ना तो पढऩा चाहती है और ना ही शिक्षक पढ़ाना चाहते हैं। छात्र-छात्राएँ कॉलेज आकर मटरगस्ती कर वापस अपने घरों में लौट जाते हैं। महाविद्यालय शिक्षा स्थली ना होकर क्रीड़ा स्थली बन गये हैं। प्राथमिक, माध्यमिक, हायर सैकेण्डरी स्कूलों की स्थिति यह है कि अधिकांश स्कूलों में 4-4, 5-5 हजार वेतन में महिला-पुरुषों को रख लिया जाता है। सरकारी स्कूलों का भगवान ही मालिक है।

पहले विद्यालयों में प्रतिदिन एक पीरियड नैतिक शिक्षा का पढ़ाया जाता था जिसमें छात्रों को रहन-सहने से लेकर बड़ों को आदर, संस्कार की शिक्षा दी जाती थी, बच्चों को संस्कार सिखाए जाते थे, उचित-अनुचित, अच्छे-बुरे कामों का भेद बताया जाता था नयी शिक्षा पद्धति में सब चीजें नदारद है। रुपये कमाने की होड में व्यक्ति दो ही व्यवसाय पर ज्यादा ध्यान दे रहा है नर्सिंग होम या स्कूल-कॉलेज।

दूसरी बात ऐसा लगता है कि नागरिकों के मन में कानून का भय समाप्त हो गया है। अपराधियों में कानून का भय समाप्त हो गया है। कारण वह समाज में दुर्दांत अपराधियों को भी खुलेआम घूमता हुआ देखता है। अनेक ऐसे उदाहरण हमारे देश में मौजूद है जिसमें सरेआम हत्याओं को अंजाम देने वाले हत्यारे भी कानून की कमजोरियों का लाभ उठाकर बाइज्जत बरी होने में सफल हो जाते हैं।

आजादी के 75 वर्षों बाद भी हमारे देश में ब्रिटिश काल में 1860 में पारितों जिसका क्रियान्वयन 1 जनवरी 1862 से प्रारंभ हुआ था वहीं भारतीय दण्ड संहिता लागू है। लार्ड मेकाले द्वारा भारतीय दंड संहिता का खाका तैयार किया गया था जिसमें 23 चेप्टर और 511 धाराएं हैं। समय की बलिहारी है उस समय गुलामों जैसी परिस्थिति भारतीयों की थी तो उस अनुसार ही भारतीय दंड संहिता तैयार की गयी। अब देश आजाद है फिर भी दंड संहित वही है। हालांकि कुछ संशोधन जरूर हुए हैं परंतु फिर भी वर्तमान भारतीय दंड संहिता में आमूलचूल परिवर्तन निहायत जरूरी है।

घृणित और संगीन अपराध करने वाले अपराधियों को तो इस्लामिक देशों की तरह सार्वजनिक रूप से मौत के घाट उतार देना चाहिये तभी देश में अपराध के पूर्व अपराधी सजा की कल्पना से दस बार सोचेगा।

इंदौर में हुयी घटना से समाज को आत्मचिंतन करना होगा कि हम अपने बच्चों को कैसे संस्कार दे रहे हैं? यह भी चिंता का विषय है कि नयी पीढ़ी मोबाइल और सोश्यल मीडिया से लाभ की प्रवृत्ति की जगह दुष्परिणामों की अंधी और गहरी खाई की ओर ज्यादा अग्रसर है।

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