तेरा जैसा यार कहाँ से लाऊँगा अब…

यह दुनिया एक रंगमंच ही तो है, जीव मानव रूप में आकर इस रंगमंच पर अपना-अपना रोल निभाता है। रंगमंच पर अपनी भूमिका निभा रही कठपुतलियों रूपी मानव की डोर ईश्वर के हाथ में ही है। कब, किसे, किस तरह और कितने समय की भूमिका निभाना है यह सिर्फ ऊपर वाला ही जानता है। ऐसे ही इस रंगमंच के खूबसूरत, यारबाज, यारों का यार, सेवाभावी, वाकपटु, जिंदादिल इंसान की खूबियों वाली कठपुतली को ईश्वर ने रंगमंच रूपी संसार से कल उठा लिया।

जिस इंसान की मैं बात कर रहा हूँ उसका नाम है दिलीप जैन, जिसे प्यार से लोग भूरी भैया कहते थे। दिलीप से मेरा परिचय वर्ष 2012 में इंदौर में हुआ था। इसके पहले ना मेरा उससे कोई व्यक्तिगत परिचय था ना ही मेरी उनसे पहले कभी कोई बात हुयी थी। मेरी धर्मपत्नी ब्रेन ट्यूमर के ऑपरेशन के लिये इंदौर स्थित बॉम्बे हास्पीटल में भर्ती थीं। ऑपरेशन के दूसरे दिन एक आकर्षक व्यक्तित्व का युवक मेरे पास आकर बोला कि आप अनिल भाई साहब के छोटे भाई अर्जुन हो। मैंने कहा हाँ, तब उसने अपना परिचय देते हुए बताया कि मेरा नाम दिलीप जैन है और मैं उज्जैन का स्थायी निवासी हूँ, वर्तमान में मैं नजदीक ही विजय नगर में निवास करता हूँ और अब इंदौर का निवासी हो गया हूँ।

उसके व्यक्तित्व में चुम्बक जैसा सम्मोहन था। कुछ ही देर की बातचीत में उसने मेरा विश्वास पा लिया। दिलीप ने मुझसे कहा कि अब आप चिंता छोडिय़े यह मानिये आपका परिवार यहीं रहता है। कुछ देर बाद वह वापस लौटा, अपने बेटे के साथ और चाय के थरमस और पोहे के साथ। बेटे को निर्देश दिये जब तक  भाभी अस्पताल में भर्ती हैं तुम्हें दोनों टाइम की चाय पिलाने और नाश्ता लेकर आना है।

जिस बॉम्बे हास्पीटल में सुरक्षा के नियम बड़े सख्त हो, निर्धारित समय पर ही परिजन मरीज से मिलने आ-जा सकते हो उस बॉम्बे अस्पताल के सारे कर्मचारी दिलीप के व्यवहार के कायल थे। सुरक्षाकर्मी, लिफ्टमैन, नर्स, डॉक्टर सब उसके दीवाने थे। जब वह अस्पताल में आता था तब उसका ऐसा आत्मीय अभिनंदन होता था जैसे कोई अति विशिष्ट व्यक्ति का होता हो। पूरे परिवार सहित दिलीप की सेवा भावना देखकर लगा मानो उससे मेरा कोई पूर्वजन्मों का संबंध रहा हो।

मेरी धर्मपत्नी लगभग 10-12 दिनों तक बॉम्बे अस्पताल में उपचाररत रही, दिलीप का पूरा परिवार हमारी तिमारदारी में लगा रहा। पता नहीं उसने किस रिश्ते या किस धर्म को निभाया? पर मुझे उसने यह जरूर सिखा दिया कि संबंध किसे कहते हैं और किस हद तक जाकर उन्हें निभाया जा सकता है। मैंने यह भी सीखा कि मानव सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है, मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारे जाये बिना भी उससे कहीं अधिक पुण्य अर्जित किया जा सकता है। दिलीप की इतनी झाँकी के पीछे का राज जानने के लिये मेरा पत्रकार मन मचल उठा। मैंने अस्पताल के अनेक कर्मचारियों से पूछा यह गौरा चि_ा आदमी है कौन जिसको आप सब लोग इतना सम्मान और प्यार-दुलार देते हो। सभी ने एक ही जवाब दिया है वह रहनुमा है, हम सबका। परवरदिगार ने उसे लोगों की खिदमत के लिये ही जमीं पर उतारा है।

तब मैंने पूछा वह कैसे? तब उन्होंने बताया कि बॉम्बे अस्पताल के इतने बड़े स्टॉफ को किसी भी तरह की मदद, कोर्ट-कचहरी, थाना या आर्थिक परेशानी आती है तो दिलीप भैय्या आधी रात को भी तैयार रहते हैं और हाँ हर दीपावली को दिलीप भाई पूरे स्टॉफ के लिये मिठाइयों का पैकेट लाते हैं। वह देवदूत के समान हैं, हमारे लिये इसलिये प्यार करते हैं।

अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद दिलीप के निवास पर भोजन कर ही उसने हमें उज्जैन के लिये रवाना किया। दिलीप से दोस्ती खून के रिश्तों से भी बढक़र हो चली थी। हर वर्ष दिलीप अपनी शादी की सालगिरह 18 मई को बड़ी धूमधाम से मनाता था और सयाजी होटल में ही। महीने भर पहले से ही फोन आना चालू हो जाते भूलना मत पूरे परिवार के साथ आना है।

सयाजी में परिवार सहित पहुँचने पर उज्जैन के खूब सारे लोग वहाँ मिलते थे जो यह बताते थे कि उसके उज्जैन छोडऩे के वर्षों बाद भी उसके प्रेम की जड़ें कितनी गहरी थी। शानदार पार्टी में नेता, अधिकारी सभी रहते थे और वह अट्टाहास करके सभी का अभिवादन करता था। उसकी शादी की वर्षगांठ पार्टी में जाने का क्रम निरंतर चलता रहा। शायद बीते वर्ष ही कोरोना के कारण समारोह नहीं हो पाया था।

कल सुबह उसके निधन का समाचार पढक़र अवाक रह गया ऐसा महसूस हुआ जैसे परिवार का कोई सदस्य चला गया हो। आँखे नम है पर कलम को भी अपना धर्म निभाना है। मेरी तो मात्र 9 वर्षों की ही दोस्ती थी। ना तो मैं उसके अतीत को जानता हूँ और ना ही जानने में दिलचस्पी है और ना ही मैंने कभी उसकी पत्रकारिता के बारे में पूछा, मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि वह एक श्रेष्ठ उम्दा इंसान था जो मुझे और मेरे जैसे ना जाने कितने लोगों को मानवता और इंसानियत का पाठ पढ़ा गया। उसके द्वारा मेरे ऊपर किये गये अहसान से उऋण होने का उसने मुझे मौका ही नहीं दिया।

स्वर्गीय दिलीप को अपनी शब्दांजलि व्यक्त करते हुए उम्मीद करता हूँ कि वह जहाँ भी रहेगा यारों की महफिल सजाये बिना नहीं रहेगा।

ऊँ शांति, ऊँ शांति.. शांति…

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